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1. शिक्षाविदों द्वारा बनाये गये लक्ष्यों की निष्ठापूर्वक पूर्ति- लोकतन्त्र में शिक्षा को प्रजातान्त्रिक आदर्शों की शर्तें पूरी करनी होती हैं। शैक्षिक प्रबन्ध को सामाजिक कूटनीतिज्ञता के रूप में लेना चाहिए, शैक्षिक प्रबन्ध को क्रियाविधिमूलक रूप में नहीं लेना चाहिए। विद्यालय प्रबन्ध के लक्ष्यों को पी. सी. रेन (P. C. Wren) के शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है—”छात्र के लाभ हेतु, उसकी मनःशक्ति के प्रशिक्षण, उसकी सामान्य दृष्टि विस्तृत करने, उसके मस्तिष्क को उन्नतिशील बनाने, चरित्र का निर्माण करने एवं शक्ति देते, उसे अपने समाज एवं राज्य के प्रति कर्तव्य का अनुभव कराने, आदि के लिए ही विद्यालय को संगठित किया जाये। यही एक उद्देश्य है जिसके लिए छात्र को तैयार किया जाये, न कि उसे माध्यमिक परीक्षा के लिए तैयार कराने हेतु।” 2. मिल-जुलकर रहने की कला (Art of Living Together) सिखाना- विद्यालय जीवन को इस प्रकार संगठित करना है कि जिससे बच्चे एक साथ रहने की कला को ग्रहण करनेके लिए तैयार हो सकें। विद्यालय का अपना सामुदायिक जीवन होता है जिसे एक उत्तम नागरिकता के प्रशिक्षण के क्षेत्र के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है। 3. स्कूल सम्बन्धी गतिविधियों तथा कार्यों का संचालन तथा संयोजन- शिक्षाशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित उद्देश्यों एवं मन्तव्यों को परिपक्व रूप देने के लिए आवश्यक है कि विविध योजनाओं तथा प्रक्रियाओं का संचालन इस ढंग से किया जाए कि उचित व्यक्ति को सुयोग्य एवं समुचित स्थान मिल सके ताकि कार्य समयानुसार होता रहे। 4. विद्यालय में सहयोग की भावना लाना तथा जटिल कार्यों की सुलभता– विद्यालय प्रबन्ध में सहयोग की भावना का अपना ही स्थान है। मानवीय स्तर पर शिक्षा प्रबन्ध का सम्बन्ध बालकों, अभिभावकों, शिक्षकों, नियुक्तिकर्ता एवं समाज से होता है। साधनों के स्तर पर इसका सम्बन्ध सामग्री एवं उसके उपयोग से होता है। साथ ही सिद्धान्तों, परम्पराओं, नियमों, कानून, आदि से इसका नाता जुड़ा हुआ होता है। विद्यालय सम्बन्धी अन्य प्रकार की समस्याओं का समाधान करना होता है। विद्यालय प्रबन्ध अपने सकारात्मक रूप से कार्यक्रम को एक विशेष दिशा देकर जटिल कार्य को सुलभ बनाकर भव्य परिणाम सम्मुख प्रकट करता है। 5. विद्यालय को सामुदायिक केन्द्र के रूप में बनाना- विद्यालय में इस प्रकार के कार्यक्रम रखे जायें जिनके द्वारा छात्र तथा अभिभावक यह अनुभव करें कि विद्यालय उनका है। विद्यालय समाज सेवा का केन्द्र है। 6. शिक्षा सम्बन्धी प्रयोग तथा अनुसन्धान के लिए समुचित व्यवस्था करना- वर्तमान युग में समाज की प्रगतिशीलता उत्तरोत्तर विकसित हो रही है। प्रबन्धकों का कर्तव्य है कि शिक्षाशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित नवीन विचारों, धारणाओं एवं प्रयोगों को ध्यान में रखें। विद्यालय की विशेष परिस्थिति के अनुसार उनकी उपयोगिता को परखें तथा समयानुकूल परिवर्तन करके लाभ उठायें। शिक्षा सम्बन्धी प्रक्रियाओं में समय-समय पर संशोधन होने के साथ-साथ यदि समीक्षा भी होती रहे तो श्रेयस्कर होगा।